सूक्ष्म कथा : आत्मकथ्य (१)
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मै एक पेशेवर लेखक हूँ |
मेरा लिखा मेरी रोटी बनकर लौट आता है |
मैने जब सच्चा लिखना शुरू किया तो ...
आलोचको ने यह कहकर ख़ारिज कर दिया कि उड़ाया माल है |
पाठको ने कहा ऊपर से निकल गया |
हारकर मैं झूठ लिखने लगा |
अब आलोचक और पाठक दोनों खुश हैं |
बस मुझे ही रोटी कड़वी लगती है |
फिर सोचता हूँ ...
ज़िन्दगी में दूसरी कड़वी बातों की तरह इसकी भी आदत हो जायेगी ||||
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मै एक पेशेवर लेखक हूँ |
मेरा लिखा मेरी रोटी बनकर लौट आता है |
मैने जब सच्चा लिखना शुरू किया तो ...
आलोचको ने यह कहकर ख़ारिज कर दिया कि उड़ाया माल है |
पाठको ने कहा ऊपर से निकल गया |
हारकर मैं झूठ लिखने लगा |
अब आलोचक और पाठक दोनों खुश हैं |
बस मुझे ही रोटी कड़वी लगती है |
फिर सोचता हूँ ...
ज़िन्दगी में दूसरी कड़वी बातों की तरह इसकी भी आदत हो जायेगी ||||
सूक्ष्म कथा :आत्म कथ्य (२)
मै देवदूत हूँ..|
ऐसा मैं नहीं कहता ...बस्ती वाले मेरे बारे
में कहते हैं |
वैसे बस्ती के लोग बहुत भले हैं ...बस उनमें
एक बीमारी है, जो सुनने से जुड़ी है |
जी ..नहीं ...वे ऊँचा नहीं सुनते बस ऊँचाई
का सुनते हैं |
उस दिन जब मुझमे सत्य अवतरित हुआ तो मै उनके
बीच ही था |
लेकिन समझना तो दूर वे मुझे सुनने को तैयार
नहीं हुए |
आपकी बातो में कितनी सच्चाई है इससे उन्हें
कोई फर्क नहीं पड़ता था |
फर्क सिर्फ इससे पड़ता था कि कितनी ऊँचाई से
सच बोला जा रहा है |
तो उन्हें सुनाने के लिए मै भी पहाड़ की चोटी
पर जा चढ़ा |
ऊपर पहुँचकर मैंने देखा कि मेरा सत्य तो नीचे
उन्ही के पास छूट गया है |
और वे उसे पैरों तले रोंद रहे थे |
ये देखकर मै सदमे में पागल हो गया और अंट
शंट बडबडाने लगा |
मैंने पाया कि वे मेरी बडबडाहट को बड़े गौर
से सुन रहें है ....
मै उन्हें कुछ समझाता इसके पहले ही मेरी आवाज़
उनके जैकारे में दब गयी ||||
जाड़े में सूरज : एक रूपक
दिसम्बर उतार पर
था और जाड़ा चढ़ाई पर |
दिन निकले एक
पहर बीत चुका था लेकिन ठिठुरता सूरज बादलों की रजाई के बीच लुकाछिपी कर रहा था |
सड़क के किनारे
ढाबे के सामने अलाव के चौगिर्द चकल्लस चालू थी |
“ जाड़े में जे सूरज भी ससुरा नया जमाई हो जाता है |बात
बात में नखरें पेलने लगता है |”खैनी मलते हुए पहला अधेड़ बोला |
“अरे काहे का जमाई , बीमार डोकरा है देखो रजाई से मुँह
निकाल के फिर भीतर दुबक गया है...नासपीटा |” दूसरे वृद्ध ने खैनी में ताल मारते
हुए कहा |
“ सूरज नहीं..तहसीली का मुलाजिम हो गया है
..जब मन होगा आयेगा ..जब मन होगा चला जायेगा |” तीसरे नौजवान ने खैनी को मुँह में दबाते हुए कहा |
“ भईया सूरज भी सरकार की तरह डायलिसिस पर है
बस नाम का है काम का नहीं है |” इंडिया गेट पर प्रदर्शन के लिए जाते हुए कॉलेजी
छात्र ने कहा |
.....यहाँ तक
आते आते अलाव ठंडा हो गया और चकल्लस भी उज़ड
गयी ||||||
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साल २०१२ और माननीय
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भाइयों मैंने सपना देखा |
चन्द्र लोक में राजा था |
उसका अपना दावा था कि वो कभी नहीं सोता
है |
पर उसके खर्राटे दिन रात गूँजते रहते |
प्रजा की हर कष्ट का उसके पास एक ही उपाय
था , पातळ लोक की कम्पनी को टेंडर दे देना |
.....सहने की सीमा चुक गयी तो प्रजा महल
के गिर्द जमा होने लगी | बाहर टंगा न्याय का घंटा बजाने लगी | यहाँ तक की घंटा
टूटकर जमीन पर आ गिरा ...पर राजा नही उठा |
प्रजा ने दरवाजे पीटने लगी तो सिपाही प्रजा को पीटने लगे |
हालत बेकाबू देख रानी ने राजा को जगाया |
राजा ने
प्रजा से पूछा क्या चाहिए ?
!!!न्याय !!!...सब एक साथ चिल्लाये |
“मिलेगा..हर चौराहे पर एक मशीन लगायी जायेगी ...आप शिकायत पत्र डालेंगे ...वो
न्याय निकालकर कर दे देगी |” राजा ने आश्वासन
दिया और खर्राटे भरने लगा ...|
पाताल लोक को टेंडर मिला और न्याय मशीन
हर चौराहे पर स्थापित कर दी गयी |
लोगों ने शिकायत की कि उनकी शिकायत से
मात्र मशीन का पेट भर रहा है लेकिन मशीन काम नहीं कर रही|
प्रजा की शिकायत पर मशीन की जाँच के लिए
एक उच्चस्तरीय कमेटी बैठा दी गयी|
...महल और कमेटी के दफ्तर ..
अब दो तरफ से
खर्राटे गूंजने लगे |||||
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माननीय बहुत विद्वान थे | बस उनमे एक दोष था कि वे गूंगे बहरे और अंधे थे |वे हर बात पर सिर्फ एक ही प्रतिक्रिया दे पाते थे |
मान. के बंगले
से विदा होते समय २०१२ की भड़ास रोकते रोकते निकल ही पड़ी |
रुंधे गले
से २०१२ बोला - मान. आपके सहयोगियों ने मेरे मुँह पर घोटालों की इतनी
कालिख मल दी कि मुझे लोग घोटाला वर्ष कहने लगे पर आपने सहयोगियों को कुछ नहीं कहा |
माननीय : ठीक है...
२०१२ : आपने
मुझे लोकपाल का वादा किया था पर जोकपाल भी नहीं दिया |
माननीय : ठीक है
२०१२ :आपकी
घोषणा से मेरी रसोई की गैस इतनी गरम हो गयी है कि सिलेंडर फटने लगे पर आप कूल बने
रहे |
माननीय : ठीक है
२०१२
:इन्द्रपुरी में मुझे चलती बस में तार तार कर सड़क पर फेंक दिया आप कुछ नहीं बोले
...
माननीय : ठीक है
२०१२ ने पाया की टेप फँस गया है सो आगे बिना कुछ कहे २०१३ को माननीय की गोद
में डाला और विदा हो लिया |
२०१३ को माननीय
की गोद में खेलता देख महामाता ने पूछा ....क्या लगता है ...इसका भविष्य क्या है
...???
माननीय : ठीक है
.....
"ठीक है "सुनना था कि गोद
में बैठा२०१३ बुक्का फाड़ कररोने लगा ........||||||
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....कालिदास ने
सोचा नये साल में सब नया होना चाहिए |
सो पहली जनवरी सूरज के जगने से पहले जगे और कोट टाई पहनकर सूर्य नमस्कार करने पहाड़ पर जा पहुँचे |
पर सूरज ने
उन्हें निराश कर दिया जो कोहरे में लिपटा बुझी लालटेन सा बिलकुल गुजरे साल की तरह था
|
अब नयेपन की
उम्मीद में कालिदास ने पेड़ों की तरफ देखा
लेकिन वे सभी पुराने साल की तरह उनीदे और
कांपते से दिखे |
घर आकर कालिदास
ने नये की तलाश में अखबार में सर गड़ाया किन्तु उसमे भी पुराने साल की या तो भयावह
खबरे थीं या कोरे आश्वासन |
......शाम
कालिदास नये की तलाश में बाज़ार गये लेकिन वहाँ भी पुरानी कीमतों ने उनके पसीने छुड़ा दिये..|
लौटते हुए फोर्ड
कार में बैठी सेठानी को मुफ्त की धनिया पत्ती के लिए रेहड़ी वाले से पुरानी हुज्ज़त
करते देखा |...काम पर जाती नर्स पर
छिछोरों की पुरानी फब्तियाँ सुनी |
रात बीबी से
टीवी के रिमोट को लेकर पुराना झगड़ा शुरू हो गया |
हारकर कालिदास
ने पुरानी बोतल खोलकर नये साल के अपने नये रेजुलेशन को ठीक १९ वे घंटे में गिलास
में गर्क कर दिया ..
हालाँकि .ऐसा वे
पहले भी १६ मर्तबे कर चुके थे |....
कालिदास ने नज़र
घुमाकर कमरे में देखा ...नये साल में सिर्फ एक चीज़ नयी थी ....लाला रामस्वरूप का
केलेंडर ....नया साल सिर्फ उसी में नया था ...||||
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