सूक्ष्म कथा : ठूंठ ********************************************************************************************************** केफेटेरिया के बगल से ढलान थी | जहाँ दोनों तरफ ऊँचे फूल पत्तियों से लदे फदे हँसते खिलखिलाते पेड़ो की कतार थी | उसी कतार में एक ठूंठ था ...हरे भरों के बीच एक विषम संख्या | लेकिन शाम के वक्त ये ठूंठ हरा भरा हो जाता जब हज़ारो की संख्या में तोते उसकी सूखी फैली बांहों पर बैठ जाते | तोते ठूंठ का सारा नंगापन ढक लेते और ठूंठ झूठ मूठ ही सही पल भर के लिये भूल जाता कि वह अब फलफूलदार नहीं रहा | उस क्षण ठूंठ कभी किसी दूल्हे सा इतराता तो कभी उस माँ सा हुलस उठता जिसके बच्चे परदेश से लौट आये हों | एक दोपहर ढलान से उतरते हुये देखा ठूंठ पर कुल्हाड़े और आरे चल रहे थे उनकी आवाजों के बीच कुछ घुटी हुई सिसकियाँ सुनायी दी | वे ठूंठ की थीं या तोतों की कह नहीं सकता | (चित्र गूगल साभार )
कथ्य,शिल्पऔर अंतर्निहित सन्देश तीनों ही दृष्टि से अकिंचन ,जीवित फिर भी त्रणवत