**********************************************************************************************************
केफेटेरिया के बगल से ढलान थी | जहाँ दोनों
तरफ ऊँचे फूल पत्तियों से लदे फदे हँसते खिलखिलाते पेड़ो की कतार थी |
उसी कतार में एक ठूंठ था ...हरे भरों के बीच
एक विषम संख्या |
लेकिन शाम के वक्त ये ठूंठ हरा भरा हो जाता
जब हज़ारो की संख्या में तोते उसकी सूखी फैली बांहों पर बैठ जाते |
तोते ठूंठ का सारा नंगापन ढक लेते और ठूंठ
झूठ मूठ ही सही पल भर के लिये भूल जाता कि वह अब फलफूलदार नहीं रहा | उस क्षण ठूंठ
कभी किसी दूल्हे सा इतराता तो कभी उस माँ सा हुलस उठता जिसके बच्चे परदेश से
लौट आये हों |
एक दोपहर ढलान से उतरते हुये देखा ठूंठ पर
कुल्हाड़े और आरे चल रहे थे उनकी आवाजों के बीच कुछ घुटी हुई सिसकियाँ सुनायी दी | वे
ठूंठ की थीं या तोतों की कह नहीं सकता |
(चित्र गूगल साभार )
behad satik aur arthwan jaisi hamesha hoti hain ..badhai sir
ReplyDeletebahut sundar
ReplyDeleteमार्मिक कथा पढ़कर अपनी लिखा याद आया....
ReplyDeleteनश्तर सा चुभता है उर में कटे वृक्ष का मौन
नीड़ ढूँढते पागल पंछी को समझाये कौन!