प्रलाप ७
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बीन
मैंने
भैंस के आगे बीन
बजायी
बन्दर को नौलखा
हार पहनाया
गधे को चंदन का
लेप किया
अंधों के आगे
आंसू बहाये
बहरों को राग
जैजैवंती सुनाया
लेकिन मुझे इतना
भीषण अफसोस कभी ना हुआ
जितना तब हुआ
जब मैंने
संस्कृति विभाग के अफसर को कविता सुनाई
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ख़ामोशी
खुदाया
तुम खामोश ना हुआ करो
तुम्हारी ख़ामोशी में बिजलियाँ कड़कती हैं
और ज़ोरदार चीख अपना
सर पटकती है
तुम्हारी ख़ामोशी में भयावह रोदन लिपटा होता है
तुम जैसे भी हो बोडम सिलबिल्ले
वैसे ही बने रहो |
तुम्हारी खोखली बक बक इस नोकदार ख़ामोशी से लाख बेहतर है
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कोई भी हिंसा इस कदर
जानलेवा नही हो सकती
जितना तुम्हारा यह अहिंसक सत्याग्रह ..|||
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जुकाम
जुकाम एक उपहार है
जुकाम होने के कई फायदे
है
एक तो यह कि आप का
हफ्तों से बिन नहाया मित्र आप के लिए परेशानी का सबब नहीं रह जाता|
दूसरे यह कि दरवाजे
पर कचरे का ढेर के बगल से गुजरते हुए आप को नगर निगम की नालायकी पर गुस्सा नहीं आता |
और सबसे बड़ा लाभ यह है कि
बाबा नागार्जुन के खरगोश की तरह आप
भी लाश से उठती बदबू के बारे में सच बोलकर मरने से ,यह कहकर बच सकते हो कि मुझे तो
रात से ही जुकाम है
मालिक |||
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स्वर्ग
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बी
पोजिटिव
ग़ालिब चच्चा गजब
के बी पोजिटिव थे |
व्हाइट वाश के
आभाव में घर की दीवार पर खरपतवार उग आयी तो तस्सली कर ली कि मियां घर में बहार आयी
है |
लेकिन सुलेमान
चच्चा उनके भी कान कुतर गये |
हुआ यूँ कि उनकी
छत में सुराख हो गया |
और चाहने वालों ने
मशवरा दिया कि मियां मरम्मत करवा लो |
“काहे को खां...अब तो अपुन बिना खिड़की खोले आसमान का हसीन नज़ारा कर सकते हैं |”
चच्चा ने
बत्तीसी निकालकर छत के सुराख को तरेरते हुए फ़रमाया||||
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प्रार्थना
रे मनमोहना ,
अब मुँह ना
खोलना |
कुछ भी मत बोलना
|
तुम्हारा मुँह ऊँची कीमतों और महँगाई का गुप्त निवास है |
तुम जब जब अपना
मुँह खोलते हो ,
कीमतें और महगाई
सहसा प्रकट होकर विकट हो जाती हैं |
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मिसेज़ कुबेर ने
मि. कुबेर से कहा
“नाथ स्वर्ग में हो रही बोरियत को मिटाने के लिए आओ
भारत भूमि चलकर कुछ दिन घूम आयें |”
“ देवी ..
पेट्रोल : ७५
डीज़ल :५५
दूध : ४५
टमाटर :४०
आटा :२५ ...
................मेवे
और फल का तो दाम सुनकर ही मैं मूर्छित हो
जाऊंगा | लूट लाटकर बड़े जतन से खज़ाना जमा किया है | भारत भूमि का पर्यटन
कर इसे गवाने का हठ ना करो |”
धनपति कुबेर ने
कुबेरनी को समझाया ||||
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पक्षी और बच्चे
क्षितिज में शाम
उतर रही थी |
और
पक्षियों की कतार अपने घोंसलों में वापस
लौट रही थी |
लौटते मवेशियों
की धूल और रंभाने की आवाज़ से वातावरण भर उठा था |
“क्या सोच रही
हो ??””
पक्षियों की
पंक्ति को कातर दृष्टि से ताक रही बुढिया से बुड्डे ने पूछा |
“ कुछ नहीं... सोच रही थी ...उधर शाम हुई तो सब अपने
घरों में लौट चले ...इधर शाम हुई तो अपने भी ..घरों से चले गये....””
बुढिया ने नज़रें
बचाते हुए कहा ........||||
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लिखने का समय
“...मै कुछ लिखना चाहता हूँ.... शुरुआत कैसे करूँ?”
नौज़वान अफसर ने
पूछा |
“कहीं से नहीं ...क्योंकि तुम्हारे लिखने का सही समय
अभी नहीं आया है |”
“लिखने का सही समय कब आएगा ??”
“जब लिखना जिंदा रहने से ज्यादा ज़रुरी हो जायेगा |”
......कबीर ने
कहा........|||
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परिवर्तनगाथा
“आपके ज़माने और हमारे ज़माने में क्या फर्क है ?”
चारागाह में
फुर्सत के क्षण में पोते ने चरते हुए दादा
से पूछा |
“बस गाने भर का फर्क है पोते ..
देखो तब हम चरते हुए
महारानी विक्टोरिया के लिए गाते थे ..
ओह लार्ड सेव
ऑवर क्वीन ...
और अब तुम चरते
हुए गाते हो ...भारत भाग्य विधाता ..
वर्ना चारागाह
भी वही है और हम भी...”
दादा ने समझाते
हुए कहा ....|||
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क्रन्तिगाथा
उसने कविता में लिखा क्रांति
फिर महाकाव्य
लिखा “क्रान्तिगाथा”
फिर तकिये की
जगह “क्रान्तिगाथा” सिरहाने रखकर सोया
और मुस्कुराते
हुए स्वप्न देखे
सुबह टायलेट में
टिश्यू पेपर खत्म होने पर
जिससे काम चलाया
गया
वो “क्रान्तिगाथा” के पन्ने ही थे ||
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