जाड़े की उस रात +++++++++++++++ सालीवाड़ा में वो जाड़े की एक रात थी | यहाँ से जबलपुर जाने वाली गाडी साढ़े बारह पर थी |जहाँ से बनारस के लिए मेरी ट्रेन सुबह चार बजे थी | सालीवाड़ा का बीमार और बदबूदार बस स्टाप चिथड़ी रजाइयों और कथरियों में घुटने मोड़ कर घुसा यहाँ वहां दुबका पड़ा था | चाय-सिगरेट के टपरे पर एक पीला बल्ब दिलासा देते हुए जल रहा था जिसके नीचे बैठा में अपनी बस के इंतज़ार में था | जाड़े में शरीर काम करना भले बंद कर दे दिल काम करना बंद नहीं करता और कमबख्त यादों को जाड़ा नहीं लगता वे वैसी ही हरारत से हमारे भीतर मचलती रहती हैं | तो परियोजना का काम पूरे जोर पर था और मैं अपने घर से सात सौ किलोमीटर दूर भीमकाय मशीनों और मरियल मजदूरों के बीच पिछले तीन हफ्तों से मोबाइल पर वीडियो चैट करके जाड़े में गर्मी पैदा करने की नाकाम कोशिश जारी रखे हुए था | सरकार किसी भी हालात में उपचुनाव में जीत पक्की करनी चाहते थी इसलिए ऊपर से दवाब बना हुआ था,जिसके चलते मै घर जाने का कोई रिस्क नहीं ले रहा था | इस परियोजना पर ही हमारी कम्पनी की साख निर्भर थी और कम्पनी की साख पर हमारी नौकरी |मेरे बीबी ब
कथ्य,शिल्पऔर अंतर्निहित सन्देश तीनों ही दृष्टि से अकिंचन ,जीवित फिर भी त्रणवत