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Showing posts from November, 2013

possible // impossible

सूक्ष्म कथा : सम्भव असम्भव ************************************ आचार्य की जीवनी का अंतिम अध्याय लिखा जाना था | उस अंतिम साक्षात्कार में आचार्य ने अपनी ग्रीवा तानकर अपनी उपलब्धियों का कुछ यूं बखान किया ... “ मैंने कई असंभव कार्य संभव कर दिखाये ..जैसे शब्दों को मूसल बनाकर विपक्षियों को कूट कूटकर विचूर्ण कर दिया ... आलोचना की एक फूंक मारी और आसमान को सौ योजन ऊपर खिसका दिया ...मेरे एक इशारे पर नदिया पर्वत पर जा चढ़ ी... मैंने उंगलियों के फंदे में वायु को बंदी बना लिया ...मैं चाँदनी को चादर की तरह लपेटकर सितारों से छुपा छुपी खेला किया ....|” एक अल्प विराम के बाद आचार्य ने उच्छवास के साथ कहा .. “पर मै स्वर्गवासी पत्नी की शंका का समाधान ना कर सका जो अंत तक मानती रही कि मेरी प्रेम कविताओं की प्रेरणा मेरी शोध छात्रा है |” ...और दीवार पर टंगे चित्र को निहारते हुये गाव तकिये पर निढाल हो गये ||| ################################################################################## चैरिटी @सुई मुई ++++++++++++++++++++++++++++++++ वे गहने बनवाकर तुड़वाकर बोर हो गयीं | वे साड़ी-बिंदी-म

2nd october

सूक्ष्म कथा : २ अक्टूबर ************************** *** २ अक्टूबर की रात थी गांधी मार्ग से गुजरते हुये दारुण कराह के साथ ‘हे राम’ सुनायी दिया | देखा तो काउंटर पर हज़ार के नोट में विराजमान गांधी जी के ऊपर दारु की बोतल रखी थी | वे बोतल से तनिक सरकने को कह रहे थे ताकि साँस ले सके | “ दुश्मन से रहम की उम्मीद ...तुमने तो मुझे निषिद्ध घोषित किया था ” बोतल ने मुस्कुराते हुये कहा | ‘मैंने तो यह भी कहा था देश मत बाँटो ..पर उन्होंने बाँटा ...गाँवों को बर्बाद मत करो ..पर उन्होंने किया... उन्होंने मेरी कौन सी बात मानी..|मै तुम्हे नापसंद करूता हूँ लेकिन दुकानदार ..मेरी शक्ल देखे बगैर तुम्हे देता ही नहीं..” एक लम्बी कराह के साथ गांधी बोले | “ तुम जिस समाज में रहते थे उसे जान नहीं पाये …ये जिनकी पूजा करता है उन्हें फ्रेम में जड़कर टांग देता है और जिन्हें गाली देता है उन्हें मुह और कलेजे से लगाये फिरता है ..” बोतल ने एक अगड़ाई लेते हुये कहा | ‘हे राम’ के साथ निकलती कराह को बीच में छोड़कर मै आगे बढ़ गया ....रास्ते में एक विचित्र प्राणी दिखायी दिया जिसके बोलने और खाने के मुँह

प्रियतम

प्रियतम ************ उस दोपहर कोने वाली टेबल से वह मुँह फेर कर उठ गयी | अज़ाब क्या होता है ? यह उस दिन ही जाना था | शाम को जली बत्तियां , रात बुझने को हो आयी लेकिन एक तूफ़ान की गिरफ्त में वो इस गली से उस गली गुजरता रहा | लेकिन आधी रात आते आते उसे लगने लगा कि दिल का दर्द नीचे पेट की तरफ उतर रहा है |देर रात रेलवे के ढाबे के सामने जब वो पहुँचा तो उसे लगा कि वो सिमट कर सिर्फ पेट रह गया है | ढाबे की पानियल दाल में डुबोकर जब चौथी और आखरी रोटी का अंतिम निवाला उसने मिर्च के टुकड़े के साथ हलक से नीचे सरकाया तो महसूस किया कि पेट का दर्द गायब हो चुका है किन्तु दिल का दर्द फिर उठने लगा है | इस बार दर्द उठने पर वो हलके से मुस्कुराया | अब वो दर्द को ख़ुशी ख़ुशी झेल सकता था | उसने अपनी ज़ेब से कागज़ निकाला और जहाँ जहाँ ‘प्रिय ’ लिखा था वहाँ काटकर ‘रोटी’ लिख दिया |

vertual and real

सूक्ष्म कथा :आभासी और वास्तविक यथार्थ ************************** ******* आचार्य इन दिनों कुर्ता फाड़कर गली गली एक ही प्रलाप कर रहे हैं - “ वो आभासी यथार्थ है ..वास्तविक यथार्थ में लौट आओ ”...| आचार्य की ४४ इंची बैलून तोंद लटक कर २४ इंच की पिचकी पिचकारी हो गयी है | शोध करने पर ज्ञात हुआ कि नेट पर साहित्यकारों की सक्रियता बढ़ने से अब आचार्य का उपवास कई दिनों तक नहीं टूटता |उनकी आलोचना का बाज़ार भीषण मंदी की चपेट में है |पहले आये दिन समीक्षा , सम्मान , विमोचन के कार्यक्रमों में आचार्य का भोज हो जाता था | अब फेस बुक पर कविता है | नेट पर ही पुस्तक का प्रकाशन है |नेट पर ही विमोचन और भोज है | आचार्य माल पुआ का चित्र ज्यों ज्यों देखते है ,उनकी क्षुधा मरोड़ मारने लगती है और वे चिल्ला उठते है- “ वो आभासी यथार्थ है ..वास्तविक यथार्थ में लौट आओ ”...| “ वो आभासी यथार्थ है ..वास्तविक यथार्थ में लौट आओ ”...| आचार्य का प्रलाप आभासी है या वास्तविक यह शायद इतिहास तय करेगा |

pimples and wrinkles

कथा :मुहाँसे और झुर्रियाँ ****************************** उसके और मेरे बीच उतना ही फर्क था जितना मुहाँसे और झुर्रियों के बीच होता है | मै एक प्रोजेक्ट पर काम कर रहा था | उस विषय की शोधार्थी होने के नाते वो मेरे साथ थी | उसे अक्सर या तो मुहाँसों की शिकायत होती या ब्याय फ्रेंड की | जिस दिन सुबह उसके चेहरे पर मुहाँसे दिखते रात तक ब्रेकअप सुनायी दे जाता | हाँ तब उसका गोभी सा फूला गोल चेहरा लौकी सा लम्बोतरा हो ज ाता और वो लेंस पहन लेती | कह नही सकता कि उसके हर ब्रेकअप को सुनकर मै खुश क्यों होता था लेकिन ये सही है | उस शाम कॉफ़ी हाउस में मैंने उसके चेहरे पर दो मुहाँसे नोटिस किये और अंदेशा सही निकला | अपने ब्रेकअप को सुनाते हुये वो सिसकियाँ भरने लगी | “ चिंता मत करो सब ठीक हो जायेगा |इस उम्र में प्यार मुहाँसो की तरह आता जाता रहता है |” मैंने टिश्यू पेपर उसकी ओर बढ़ाते हुये कहा | शायद सर्दी का असर रहा हो ,जो ना चाहकर भी मेरा लहजा हमदर्दी की जगह तंज़ भरा हो गया था | उसने थोड़ी देर में खुद को सम्भाला और मेरी तरफ कॉफ़ी बढ़ाते हुये पलटवार किया “ और आपकी उम्र का प्यार झुरियो की तरह ह

hunger and religion

रूपक :भूख और धर्म ************************* योगिराज शिव अपने परिवार संग हिमालय में तपश्चर्या में लीन थे | सभी प्राणियों में सद्भाव और परस्पर प्रेम था | पुण्य और धर्म की जय थी | किन्तु तराई के निवासियों द्वारा उर्जा के अंधाधुंध उपभोग से कारित जलवायु परिवर्तन ने हिमालय में भयानक आकाल निर्मित कर दिया | वनस्पतियाँ सूख गयी | पशु पक्षी पलायन कर गये | आहार के लिए तीनो लोक में त्राहि त्राहि मच गयी | एक दिन भूख से विक्षिप्त शिव का सर्प उनके गले से उतरकर ,भूख से शक्तिहीन पड़े गणेश के चूहे पर झपटा और उसे निगल गया | यह देखकर कार्तिकेय का क्षुधान्ध मोर भी साँप को खाने से स्वयम को रोक ना सका | भूख से तड़पते पार्वती के शेर से भी यह देख रहा ना गया और वो मोर को चबा गया | अपने प्रिय जीवों का यह हश्र और परस्पर द्वन्द देख माँ भवानी शोक विह्वल हो उठी | शिव की समधि भंग हुयी तो उन्होंने सांत्वना देकर उन्हें समझाया.. “देवी भूख का समाधान ही प्राणी का प्रथम धर्म है | पृथ्वी पर धर्म की रक्षा करने के लिये पहले सभी प्राणियों के पेट भरने होगे | ” “कितु ..”. पार्वती ने टोकना चाहा | ‘किन्

‘छंगा’ v/s दीपावली

‘छंगा’ v/s दीपावली *********************** माँ बाप ने क्या नाम दिया पता नहीं | ऊपर वाले ने छ: उँगलियाँ दे दी तो दुनिया ने उसे नाम दे दिया ‘छंगा’| आठ नम्बर प्लेटफार्म के बाहर ‘बाबा भोजनालय ’ में बरतन मांजता |बदले में मिलता दो टाइम का भोजन और सोने के लिए टेबल | भोर के ४ बजे से वो होटल से लगे ‘सुलभ शौचालय’ के सामने प्लास्टिक का डब्बा लेकर लाइन में लग जाता | ये लाइन एक नम्बर प्लेटफार्म वाले द ादा दरबार के आगे शाम को लगने वाली लाइन से भी लम्बी होती | यानी घंटे भर में भी ‘हल्के होने’ के लिए नम्बर लग जाये तो समझिये ऊपर वाले ने आपकी सुन ली | कोई चिल्लर देने में हुज्जत करता है तो ठेकेदार का एक ही डायलाग होता कि इस देश में खाना मुफ्त मिलता है लेकिन ‘पाखाना’ के दाम लगते हैं | इसी लाइन में जैसे ही छंगा नम्बर आता है वो चिल्लाकर अपने ग्राहक को आवाज लगाता जो उसके हाथ से डब्बा लेकर अन्दर घुस जाता | छंगा को अपना नम्बर छोड़ने के एवज में २ रूपये मिलते ,जिसका आधा ठेकेदार का कमीशन होता | साथ ही ‘चौकी’ के स्टाफ के लिए फ्री सर्विस भी देनी होती | हालाकि खुद छंगा के लिये रेल की पट

broken cries

सूक्ष्म कथा : रुलाइयां ***************************** * ४ माले घर के और ७ माले दफ्तर के | ११   माले चढ़ते-उतरते , उसे कभी इतनी फुर्सत ना मिली अपनी रुलाइयों के साथ थोड़ा वक्त गुज़ार सके | मौत आयी तो गिड़गिड़ा उठा कि कुछ वक्त दो कि मै हलक में फसी   रुलाइयों को निकाल लूँ | मौत भी चुतर हसीना , हँसकर बोली “ ठीक है वक्त दिया ...पर याद रखना पहली हिचकी आने के साथ सब खत्म   | ” रुलाई बाहर आती कि हिचकी आ गयी और इसी के साथं भीतर फसी हुई रुलाइयां की मुक्ति का मार्ग सदा के लिए बंद हो गया   | मै जब मातम पुर्सी को पहुँचा तो कमरा लोबान की   तीखी गंध से भरा था | मै कोने वाली कुर्सी पर बैठा था कि मैंने देखा कि लाश से कुछ रुलाइयां निकली और धीरे धीरे मेरी और सरकने लगी और देखते   देखते मुझसे लिपट गयी | मैंने एक एक को अलगाते हुये कहा कि वे मुझे माफ़ करे मै कोई रुदाली नहीं हूँ | हाँ कमरे से बाहर निकलते हुये मैंने उन्हें वचन दिया था कि उनकी बात आप तक ज़रुर पहुचाऊंगा | शायद आप मै से कोई रुदाली हो जो उन अधबीच में छूटी हुई रुलाइयों को प्रेत योनी से मुक्त कर दे |

चक्की

सूक्ष्म कथा : चक्की  ********************** “देखो तो ज़रा, गेंहूँ के साथ बिचारा घुन भी पिसा जा रहा है...” मैंने पिसनवारी को टोका | ‘ गेंहूँ के साथ घुन का पिसना कोई नयी बात नहीं है |’ आँखों पर पट्टी बांधते हुये पिसनवारी बोली और चक्की की रफ्त ार बढ़ा दी | घुन को नज़रअंदाज़ करते हुये मै भी आटा गूँथने लगा | सिलसिला यूँ ही चलता रहा और कुछ दिनों में मैंने पाया कि अब गेहूँ के साथ घुन नहीं बल्कि घुन के साथ गेंहूँ पिस रहा था | और अंत में देखता क्या हूँ कि पिसने को घुन ही घुन बचा था | यहाँ पहुचकर चक्की की घरघराहट घुन का हाहाकार बन चुकी थी और उधर पिसनवारी ने अब कानो में भी रुई ठूँस ली थी | महाशय, मैंने पूरी ईमानदारी से घुन पर मर्शिया लिखा और सिर के ऊपर चादर तानकर सो गया ||

singer

सूक्ष्म कथा : गायिका का आत्म कथ्य  __________________________________________ _____________-  लोंगो की खुसर फुसर , दबी चर्चाओं से तंग आकर मै अम्मा से बोली कि अब से गाना बजाना मुझसे नहीं होगा | तब मेरा सिर सहलाते हुये अम्मा ने अपनी राम कहानी  सुनायी... “..पगली जब मै भी कोठे पर गाना सीखती थी तो लोग मुझे जमुनिया बुलाते थे और तबलची को नसीरा | जब शादी ब्याह में गाने लगी तो मै जमना हो गयी और वो नासिर |और जब हम ‘भारत महोत्सव’ से लौटे तो मै जमुना बाई हो चुकी थी और वो उस्ताद नासिर खां | तब मुझे भी लगा था कि मर्दों की जमात में औरत हमेशा ही ‘बाई’ रहेगी क्योंकि ‘उस्त्ताद’ होने के लिये मर्द होना ज़रूरी है | थोड़ी तसल्ली इस बात की हुई कि जो लोग मेरे बिन ब्याही माँ होने पर शहर के हर रहीस से मेरा नाम जोड़कर चटखारे लेते थे वही सलाम करने लगे |मेरे सम्मान में मुझे सुनहरी गोट जड़ा सर्टिफिकेट दिया गया कि मुसम्मात जमुना बाई हमेशा बलन्द किरदार और मयार की औरत रहीं | आज भी उन सुनहरे हर्फ़ को देखती हूँ तो हँस पड़ती हूँ कि मै तो सदा से जो थी वही थी लेकिन मेरी बलन्दी ने लोंगो की नज़र बदल दी थी | कामयाबी जितना