Skip to main content

चन्द्रलोक से चच्चा

चन्द्रलोक से चच्चा
**************************************************************************************************
चच्चा भोपाली इन दिनों चंद्रलोक की सैर पर हैं | जैसे ही सर्वर जुड़ा इधर लोगो ने कैमरे के सामने थोबड़ा रखते हुये एक साथ सवाल दागा चच्चा चन्द्र लोक में क्या देखा ?

चच्चा ने  पान के गिलौरी मुँह में दाबी और पीक मारकर बोले ..

खां देखने के लिए कुछ है  ही नहीं ..बस पहाड़ सा एक जानवर यहाँ भी है  हाथी जैसा ... लेकिन चन्द्रलोक वाले उसे क़ानून कहकर बुलाते हैं ...खां वो खाता बहुत है पर चलता धीरे धीरे है | कभी पगला भी जाता है | जिसके पास अंकुश होता है वो ही उसे काबू में कर सकता है | मगर  खां सबसे बड़ी बात तो ये कि हाथी की तरह उसके भी खाने के दांत अलग और दिखाने के दांत  अलग अलग हैं | यहाँ के लोग खाने के दांत को माशाराम और दिखाने के दांत को तमाशाराम कहते
 हैं |"

कहकर चच्चा ने दूसरी गिलौरी भी दाब ली मगर वे आगे कुछ और बता पाते कि सर्वर डाउन हो गया ||

(चित्र गूगल साभार )

Comments

Popular posts from this blog

झालर

झालर ************* मिलौनी गंज का आसमान शाम होते ही पतंगों से भर जाता और सुनहरी शाम सतरंगी हो जाती | पतंगें हम बच्चों के पँख थे जिनसे हम उड़ान भरते | लेकिन मै अपनी पतंग उडाया नहीं करता था ..तैराया करता था | दरअसल आसमान मेरा समन्दर था ....|| तो साहब , किस्म किस्म की ऊँची ऊँची पतंगों के बीच मेरी मामूली पतंग नीचे तैरती रहती लेकिन सारा मिलौनिगंज मेरी पतंग को  हसरत और शाबाशी भरी नज़रों से देखता रहता | वजह थी पतंग की झालर जिसे मैंने सुनहरी गोट से सजा रखा था | कोई उसे हनुमान की पूछ कहता तो कोई पतंग की चोटी.. लोगों की वाहवाही के साथ मेरी पतंग की झालर भी लंबी होती गयी | एक दिन मैंने देखा कि मिलौनी गंज  उस झिलमिल सितारों वाली झालर  के लिए वाहवाही कर रहा था , जिसे मै नहीं बल्कि चौधरी का लड़का उड़ा रहा था .... फिर क्या ? मैंने वाह वाही की होड़ में पतंग के साथ दो झालर लगा दी ...फिर तीन ..फिर ४ ...| मैं भूल गया था कि पतंग बराबर गोते खाकर नीचे आ रही थी ....| आखिर में झालर के बोझ से दबी पतंग गूलर के ऊँचे पेड़ पर जा फँसी ... मैंने उसे जब नीचे उतारा तो  झालरों  के अ

तीन लघु कथाये : हनुमंत किशोर

एनकाउंटर  -------------- गोल मेज कांफ्रेंस जारी थी ।सबके माथे पर चिंता की लकीरें खींची हुई थीं । 'उसके पास से एक माचिस ,तीन किताब .दो कोरी नोटबुक ,एक पेन और चार नंबर बरामद हुये थे बस ' नीली वर्दी वाला साहब पसीना पोछते हुये बोला  'लेकिन रात को व्ही.आई.पी. इलाके मे घूमने कोई कारण भी नहीं बताया स्याले ने ' हरी वर्दी ने ने मुट्ठी भींचकर कहा 'उसकी किताब मे लिखा है देश जरनल से बड़ा है । शक्ल और बातों से साफ है कि वो देश की तरह नहीं सोचता..था.. ' पीली वर्दी ने सख्त लहजे मे कहा 'लेकिन इतना पर्याप्त नहीं है उसे देश द्रोही सिद्ध करने के लिये' नीली वर्दी ने चिंता जाहिर की । 'माचिस के अलावा कुछ भी ऐसा नहीं मिला जिससे वो कुछ कर सकता था ...हम क्या कहें अब ? ' एक साथ सारी वर्दियों ने भुनभुनाते हुये चीफ की तरफ़ आदेश के लिये देखा । चीफ का चेहरा तन चुका था । 'यही कि आत्म रक्षा मे मुठभेड़ के दौरान मारा गया '....चीफ ने टेबल पर मुक्का मारते हुये कांफ्रेंस बर्खास्त कर दी..... दूसरे दिन सबसे बड़ी सुर्खी थी "खतरनाक देश द्रोही एनकाउंटर मे मारा गया ' ॥ ॥हन

जाड़े की उस रात

जाड़े की उस रात +++++++++++++++ सालीवाड़ा में वो जाड़े की एक रात थी | यहाँ से जबलपुर जाने वाली गाडी साढ़े बारह पर थी |जहाँ से बनारस के लिए मेरी ट्रेन सुबह चार बजे थी |   सालीवाड़ा  का बीमार और बदबूदार बस स्टाप चिथड़ी रजाइयों और कथरियों में घुटने मोड़ कर घुसा यहाँ वहां दुबका पड़ा था |  चाय-सिगरेट के टपरे पर एक पीला बल्ब दिलासा देते हुए जल रहा था जिसके नीचे बैठा में अपनी बस के इंतज़ार में था | जाड़े में शरीर काम करना भले बंद कर दे दिल काम   करना बंद नहीं करता और कमबख्त  यादों को जाड़ा नहीं लगता वे वैसी ही हरारत से हमारे भीतर मचलती रहती हैं | तो परियोजना का काम पूरे जोर पर था और मैं अपने घर से सात सौ किलोमीटर दूर भीमकाय मशीनों और मरियल मजदूरों के बीच पिछले तीन हफ्तों से मोबाइल पर वीडियो चैट करके जाड़े में गर्मी पैदा करने की नाकाम कोशिश जारी रखे हुए था |   सरकार किसी भी हालात में उपचुनाव में जीत पक्की करनी चाहते थी  इसलिए ऊपर से दवाब बना हुआ था,जिसके चलते मै घर जाने का कोई रिस्क नहीं ले रहा था | इस परियोजना पर ही हमारी कम्पनी की साख निर्भर थी और कम्पनी की साख पर हमारी नौकरी |मेरे बीबी ब