he और she: दानिश और दीवानी
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he दानिश था
उसने व्यथा को
क्लासिक पेंटिंग बना दिया .
she दीवानी थी
उसकी व्यथा ने
उसे कार्टून बना दिया...
he ने व्यथा को निवेश किया
जिसकी वापसी
पुरूस्कार में हुई
she ने व्यथा सारी
गुल्लक में जमा की
जब गुल्लक फूटा
वो तितली बनकर उड़ रही ....||
he और she :विलोम
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एक था he
और एक थी she
मरियल सी पोखर में दोनों केली-कौतुक करते गगन-मगन थे |
बरस दर बरस बीत रहे |
she मानो सोन मछरिया थी जिसके लिए he का प्रेम ही जीवन -जल था |
उसके अभाव की कल्पना भी करते वो तड़पने लगती |
तो उधर he मानो मेढक मक्कार था |
उसके सपने में पोखर नहीं पहाड़ आते | जिनमे वो उचक-उचक कर खुद को चढ़ता हुआ देखता |
एक दिन he को जैसे ही ज़मीन दिखी वो जल से बाहर कूदकर नौ-दो- ग्यारह हो रहा |
she रूहांसी होकर पोखर में उछलकर चिल्लाई 'बेवफा कहीं का '
he आगे जंप करते हुए जोर से टर्राया "मूर्ख कहीं की "...
||हनुमंत किशोर ||
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he दानिश था
उसने व्यथा को
क्लासिक पेंटिंग बना दिया .
she दीवानी थी
उसकी व्यथा ने
उसे कार्टून बना दिया...
he ने व्यथा को निवेश किया
जिसकी वापसी
पुरूस्कार में हुई
she ने व्यथा सारी
गुल्लक में जमा की
जब गुल्लक फूटा
वो तितली बनकर उड़ रही ....||
'ही' और 'शी' :फल
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सुनहरे फल को 'ही' ने चखा |
सुनहरे फल को 'शी' ने भी चखा |
चखने के बाद 'ही' का दिल आंसुओ में डूबने लगा |
पश्चाताप से दग्ध वो खुद को दंडित करने के लिए जंगल की तरफ भाग गया |
उधर चखने के बाद 'शी' का दिल सुनहरे प्रकाश से भर गया |
वो बेसुध नाचने-गाने लगी और बस्ती की तरफ ख़ुशी से दौड़ पड़ी |
"लेकिन एक ही फल का विपरीत असर क्यों हुआ ?" एक श्रोता ने पूछा |
"क्योंकि सुनहरे फल को चखते समय 'ही' पाप में था और 'शी' प्रेम में "
कथा वाचक ने व्याख्या की ||
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सुनहरे फल को 'ही' ने चखा |
सुनहरे फल को 'शी' ने भी चखा |
चखने के बाद 'ही' का दिल आंसुओ में डूबने लगा |
पश्चाताप से दग्ध वो खुद को दंडित करने के लिए जंगल की तरफ भाग गया |
उधर चखने के बाद 'शी' का दिल सुनहरे प्रकाश से भर गया |
वो बेसुध नाचने-गाने लगी और बस्ती की तरफ ख़ुशी से दौड़ पड़ी |
"लेकिन एक ही फल का विपरीत असर क्यों हुआ ?" एक श्रोता ने पूछा |
"क्योंकि सुनहरे फल को चखते समय 'ही' पाप में था और 'शी' प्रेम में "
कथा वाचक ने व्याख्या की ||
he और she :विलोम
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एक था he
और एक थी she
मरियल सी पोखर में दोनों केली-कौतुक करते गगन-मगन थे |
बरस दर बरस बीत रहे |
she मानो सोन मछरिया थी जिसके लिए he का प्रेम ही जीवन -जल था |
उसके अभाव की कल्पना भी करते वो तड़पने लगती |
तो उधर he मानो मेढक मक्कार था |
उसके सपने में पोखर नहीं पहाड़ आते | जिनमे वो उचक-उचक कर खुद को चढ़ता हुआ देखता |
एक दिन he को जैसे ही ज़मीन दिखी वो जल से बाहर कूदकर नौ-दो- ग्यारह हो रहा |
she रूहांसी होकर पोखर में उछलकर चिल्लाई 'बेवफा कहीं का '
he आगे जंप करते हुए जोर से टर्राया "मूर्ख कहीं की "...
||हनुमंत किशोर ||
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